शांति सेना की योजना करनी पड़ेगी, ऐसा दर्शन केरल में मुझे वहां की परिस्थिति देख कर हुआ। मुझसे पूछा गया कि केरल की कौन सी परिस्थिति देख कर आपने यह सोचा ? मैंने उत्तर दिया कि यहाँ की वर्तमान परिस्थिति देख कर यह विचार नहीं सूझा। इसमें एक भावी दर्शन है। वह दर्शन इस समय यहाँ प्रकट हुआ है। इसे केरल में ही प्रकट होने की जरूरत नहीं थी, कहीं और भी प्रकट हो सकता था। हिंदुस्तान की परिस्थिति ऐसी है कि कहीं भी स्फोट संभव था। शांति सेना इसका सुन्दर ढंग से बचाव कर सकती है।
मैं आगे का एक और दर्शन देख रहा था। ग्रामदान, मालिकियत मिटने आदि का क्रांतिकारी कार्य शांति के ढंग से नहीं हो सकेगा, अगर उसके साथ लोग यह महसूस नहीं करेंगे कि हम याने हमारा विचार आज की हालत में भी उनका रक्षक है। विषमता, असमता वगेरह अशांति के कारण ख़त्म होंगे, तभी अशांति मिटेगी। इस समय हम सिर्फ इतना ही कह कर अपने मन को शांत रखें कि कहीं अशांति हुई, तो हम क्या कर सकते हैं ? हमने तो एक रास्ता लिया है मिलकियत मिटाने का, रचनात्मक काम का। वह लोगों के सामने रखा है। उसे अगर वे मानते हैं तो ठीक। नहीं मानते, तो आज की विषम परिस्थिति में अशांति के बीज फूट ही निकलेंगे। फिर, उसके बुरे फल लोगों को चखने पड़ें तो हम क्या करें ? यह कह कर हम शांत रहें, तो हमारी 'शांतिमय क्रान्ति' शब्द मात्र ही रह जाएगी। वह चीज जनता में नहीं पैठ सकेगी। उससे जनता का ह्रदय प्रभावित नहीं हो सकेगा और उससे अपने ह्रदय को भी अंत: समाधान नहीं हो सकेगा। इसलिए हमने क्रान्ति की शांतिमय प्रक्रिया जो चलायी है, उसकी भी वृद्धि के लिए जरूरो था कि हम शांति का जिम्मा उठायें।
शांति और क्रान्ति का साथ
अब तक मना जाता था कि अहिंसक लोग स्थितिस्थापकता ही चाहते हैं। क्रांतीवादी शांतिवादी नहीं और शांतिवादी क्रांतीवादी ही। किन्तु अब ऐसी जमात निर्माण होनी चाहिए, जो शांतिवादी होते हुए क्रांतीवादी भी हों, तो शांति के तरीके से समाज की आज की आर्थिक रचना बदले की हिम्मत पड़े। तभी उससे दुनिया में एक विश्वास पैदा होगा। इसके साथ साथ सर्वोदय जब यह बताएगा कि आर की समाज की विषम स्थिति में भी अशांति के समय बीच में पड़कर कुछ लोग अशांति का प्रहार अपने पर लेने वाले हैं और इस तरह वे रक्षण कर सकते हैं, तो दुनिया में विश्वास पैदा होगा।
रचनात्मक शक्ति पर अधिष्ठित
हिंसक सेना के लिए भी कितनी ताकत लगनी पड़ती है ! वहां भी सारा रचनात्मक कार्यक्रम करना पड़ता है। वह भी बिना अनुशासन के नहीं होता। रचनात्मक शक्ति अहिंसा का तो प्राण ही है। यदि हिंसा वालों ने बन्दूक बनाई है तो हमें चरखा बनाना पड़ता है, वे तलवार बनाते हैं। तो हमें कुदाली चाहिए। इस तरह हमारे लिए भी औजार जरूरो है। ये सारे साधन बनाने में रचनात्मक शक्ति का उपयोग होता है। ग्रामदान रचनात्मक शक्ति का कारखाना है। और जो शांति सेना बन रही है, वह अहिंसा के अनुशासन में रह कर सारे देश को बचाने का प्रयत्न करेगी। इस तरह दोनों मिल कर अपने देश में एक सुन्दर योजना हो सकती है। अत: सारे भारत को हम एक ही सन्देश देना चाहते हैं कि हम सब शांति सेना के सैनिक बनें और लाखों ग्रामदान होकर रचनात्मक शक्ति पैदा हो। इसके लिए जरूरो है कि हमारे ह्रदय में शांति-प्रेम हो। इसीसे से हमारा काम होने वाला है।
ग्राम स्वराज के रक्षणार्थ
मुझे लगा कि ग्रामदान और ग्राम राज्य तो हो गया, अब ग्राम राज्य के रक्षण की चिंता करनी चाहिए। अत: हमें हनुमान की यद् आयी। राम कार्य तो हो गया, रक्षण के लिए हनुमान चाहिए। जो ग्राम राज्य बन गया है, उसके रक्षण के लिए देश में शांति सेना बननी चाहिए।
उधर रामनाथपुरम और मदुरै जिलों में ग्रामदान की हवा बहुत फैली है। क्या आप समझते हैं कि वहां ग्रामदान होगा ? जहाँ मारकाट चल रही है, वहां ग्रामदान कैसे होगा ? इधर केरल में घूमते थे, तो हमें पंजाब की चिंता बढ़ रही थी। एक लिपि सीखने की बात ! और वह कैसी लिपि की ? जिसमें एक तिहाई अक्षर तो नागरी के हैं, दो तिहाई में से एक तिहाई करीब-करीब नगरी की शक्ल के हैं और थोड़े अक्षर भिन्न - ऐसी लिपि की। भाषा का सवाल ही नहीं, भाषा तो सब जानते हैं पंजाबी। कोई बड़ी बात नहीं। परन्तु लिपि पर अड़े हैं और हिंसा करते हैं। इधर मदुरै में भी हिंसा चली है।
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