भारत में अहिंसा प्रकट हो
भारत ने मुक्ति का आध्यत्मिक मार्ग खोजा
जब कोई देश पराधीन होता है, किसी सत्ता के हाथ में चला जाता है, तो या तो वह बिलकुल दब जाता है या झगडे के लिए खड़ा हो जाता है। लेकिन भारत ने दोनों में से कोई बात नहीं की। उस ज़माने का भारत बंगाल ही था, क्योंकि अंग्रेजों के कब्जे में प्रथम बंगाल गया और बाद में भारत के सब हिस्से। अंगरेजी सभ्यता का मुकाबला पहले बंगाल में हुआ। यहाँ जो पुरुष पैदा हुए उन्होंने न दब जाना पसंद किया और न शास्त्र लेकर लड़ना ही। बल्कि तीसरी चीज आत्मशोधन को ही पसंद किया।
यह बहुत बड़ी बात थी। दुनिया में शायद ही इस तरह की कोई मिसाल मिले। हमारे यहाँ के नेताओं ने सोचा कि जब इतनी विशाल भारत संस्कृति पराधीन होती है, तो वह हमारे लिए सोचने का एक विषय होगा। कुछ दोष, कुछ न्यूनता होगी, उसका हमें संशोधन करना होगा। अतएव उन्होंने अध्यात्मिक संशोधन का विचार किया। इसका बहुत बड़ा असर हुआ। मंथन के परिणामस्वरूप सभी संस्कृतियों के समन्वय का विचार यहाँ हाथ में आया।
भारत की समन्वय दृष्टि
भरता के लिए यह नया विचार नहीं था। बादरायण ने अपने सूत्र में 'ततु समन्वयत (परमात्मा का दर्शन समन्वय में होता है) लिख ही रखा है। वह समन्वय की साधना थी। यह अपने देश की विशेषता है। भारत में विविधता है, वह 'महामंवर सागर है। भारत की पाचन क्रिया बहुत तेज है। भिन्न-भिन्न सभ्यताएं, संस्कृतियाँ जब परस्पर निकट आती हैं, तब उनका सारभूत अंग खींचकर आत्मसात कर लेने पर मधुर निष्पत्ति होती है। इस तरह जो भी लोग बाहर से आये, वे यहाँ की समन्वय प्रक्रिया में घुल-मिल गए। यह भारत की अपनी दृष्टि थी। भिन्न-भिन्न धर्मों के साथ समन्वय का यह विचार था तो पुराना, लेकिन तब दुनियाभर के धर्मों से हमारा सम्बन्ध आता नहीं था। इसलिए यहाँ जितना धर्म विचार था, उसका सर हमने ले लिया। लेकिन पाश्चात्य संकृति जहाँ आयी वहां हिन्दुओं के लिए चिंतन का दालान खुल गया। उनके कारण नवीन विचार प्रचार शुरू हुआ और भिन्न-भिन्न धर्मों एवं उनकी उपासनाओं के समन्वय का विचार यहाँ सूझा।
शंकराचार्य ने अपने ज़माने में पंचायतन पूजा चलायी। भारतवर्ष में जो पंथ थे, उन सबको समन्वय से एक बार लिया। लेकिन उसके बाद इस्लाम धर्म आया, इसाई धर्म आया, विज्ञानं आया। इसके साथ भी समन्वय की नयी जरूरत पैदा हुई। वह समन्वय यहाँ बंग भूमि में हुआ। परिणामत: जाग्रति आयी। बाद में कोंग्रेस आयी, राजनीती का विचार आया। लेकिन उस राजनीती को तत्त्व विचार का आधार मिला। राममोहन रॉय से लेकर महात्मा गाँधी तक जितने राजनैतिक पुरुष हो गए- चाहे वे श्री अरविन्द हों, महात्मा गाँधी हों या लोकमान्य तिलक हों। सबका आधार यहाँ का अध्यात्म विचार था। इसलिए यहाँ की राजनीती बहकी नहीं। बाहर से राजनीती आयी, लेकिन वह यहाँ से जन समुदाय पर असर नहीं दल सकी। महात्मा गाँधी को इस पृष्ठभूमि का लाभ मिला और उन्होंने भारत की संस्कृति के अनुकूल अहिंसा का शस्त्र दिया। अगर यह अध्यात्म संशोधन न हुआ होता, तो समाज महात्मा गाँधी का अहिंसा का शास्त्र सुनने को राजी न होतो। इतिहास में तो ऐसी कोई अन्य मिसाल नहीं, जहाँ अहिंसा के जरिये एक सल्तनत हटाई गयी हो। लेकिन यह पूरी पृष्ठभूमि थी, इसलिए लोगों ने यह विचार स्वीकार कर लिया।
अहिंसा एक ऐतिहासिक आवश्यकता
आज तो हमारे सामने बहुत बड़ा विश्व रूप दर्शन है। भारत की आजादी का सवाल आसन था। अंग्रेज आये, उन्होंने ऐसा काम किया जो किसी सल्तनत ने पहले नहीं किया। उन्होंने प्रजा को नि:शस्त्र बनाया। प्रजा को न:शस्त्र बनाने में बहुत खतरा होता है। इससे प्रजा डर जाती है, राज चलाना तो आसन होता है। लेकिन बहार के हमले के समय यह प्रयोग खतरनाक साबित होता है। न:शस्त्र प्रजा के सामने इसके आलावा कोई चारा नहीं की वह सदा के लिए गुलाम बन जाये या ऐसा शस्त्र खोज निकले जिसका कोई मुकाबला न हो। यह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी। हिंसा शक्ति नहीं रही और इसलिए उसे अहिंसा शक्ति का आश्रय लेना पड़ा। अगर गांधीजी न आते और दूसरा कोई व्यक्ति आता और लोगों के सामने ये विचार रखता तो लोग मान लेते। वह न:शस्त्रइकरण अनिवार्य था। गांधीजी ने हमें सिखाया कि हम सहयोग हटा लें तो उनका राज गिर जायेगा कारण वैसा उनको अनुभव आया।
आज दुनिया की परिस्थिति बहुत कठिन है। वह बहुत अधिक सशस्त्र हो गयी है। जिधर देखो, उधर शस्त्र हैं। ये शस्त्र मानव की हाथ नहीं, मानव उनके हाथ चला गया है। इसलिए आज की परिस्थिति में अहिंसा के सिवा इलाज नहीं। भारत की उस परिस्थिति में इलाज हो सकता था। जहाँ युद्ध शुरू हो जाते हैं वहां देश को लाभ पहुच सकता है। जैसे ब्रह्मदेश या श्रीलंका को लाभ मिला। इस तरह भारत को भी लाभ मिल सकता था। लेकिन आज दुनिया की जो हालत है, उसमें अहिंसा अत्यंत अनिवार्य है। अब इस बात की अभिज्ञता बंगाल को जल्दी से जल्दी होनी चाहिए। जिस प्रदेश में इतना अध्यात्म संशोधन हुआ, वहां यह संशोधन भी होना चाहिए। यह ध्यान में आना चाहिए कि अब अहिंसा अनिवार्य है। इसके आगे अहिंसा शक्ति तारिणी शक्ति बनेगी। चंडी शक्ति नहीं चलेगी। हम अहिंसा को भारती नाम दे दें, जिसने और देशों का आह्वान दे दिया और सब जातियों का समाहार किया। आज अक्षोभ युक्त शांति से काम करना होगा। अक्षोभ युक्ता शांति आज के ज़माने का बहुत बड़ा शस्त्र है।
पुष्पेन्द्र
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